इस्पात क्षेत्र में ऊर्जा और पर्यावरण प्रबंधन
इस्पात क्षेत्र में ऊर्जा और पर्यावरण प्रबंधन
लौह और इस्पात क्षेत्र में पर्यावरण प्रबंधन
भारत में लौह और इस्पात उद्योग पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए) के साथ-साथ पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) द्वारा अधिनियमित और प्रकाशित पर्यावरण संरक्षण नियमों और विनियमों के अंतर्गत आता है। प्रांरभ में, उद्यमियों को किसी भी नए लौह और इस्पात संयंत्रों की स्थापना या इसके पर्याप्त विस्तार के लिए ईपीए के तहत केंद्र/राज्य सरकारों से वैधानिक मंजूरी प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, इस्पात कंपनियों को निर्दिष्ट प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों/सुविधाओं को स्थापित करने और वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट उत्पादन और उपयोग के संबंध में निर्धारित मानकों/मानदंडों के अंदर अच्छी तरह से काम करने की आवश्यकता होती है। इनकी निगरानी केंद्रीय/राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा की जाती है। इस्पात मंत्रालय मानदंडों और मानकों के निर्माण/संशोधन में मदद करता है और सुविधा प्रदान करता है।
ऊर्जा प्रबंधन:
भारत में अधिकांश एकीकृत इस्पात संयंत्रों में ऊर्जा की खपत आम तौर पर 6-6.5 गीगा कैलोरी प्रति टन कच्चा इस्पात है, जो विदेशों में इस्पात संयंत्रों में 4.5-5.0 की तुलना में अधिक है। ऊर्जा की खपत की उच्च दर मुख्य रूप से अप्रचलित प्रौद्योगिकियों के कारण है, जिसमें पुराने संयंत्रों, पुरानी शॉप फ्लोर और प्रचालन पद्धतियों में आधुनिक प्रौद्योगिकियों को फिर से जोड़ने में समस्याएं, कच्चे माल की निम्न गुणवत्ता जैसे उच्च राख कोयला/कोक, उच्च एलुमिना लौह अयस्क आदि शामिल है। हालांकि, प्रौद्योगिकीय उन्नयन, अपशिष्ट उष्मा का उपयोग, उच्च गुणवत्ता वाले इनपुट का उपयोग आदि के कारण इस्पात संयंत्रों में ऊर्जा की खपत धीरे-धीरे कम हो रही है।
सरकार/इस्पात मंत्रालय, विभिन्न योजनाओं और विनियमों के माध्यम से, इस्पात संयंत्रों में ऊर्जा की खपत और पर्यावरण प्रदूषण के उत्सर्जन में कमी लाने से संबंधित सुविधा प्रदान कर रहा है। विभिन्न मंचों और तंत्रों के माध्यम से उठाए जा रहे कुछ कदम/पहलें निम्नानुसार हैं:
सरकार/उद्योग द्वारा उठाए गए कदम/पहलें:
पर्यावरण संरक्षण के लिए निगमित उत्तरदायित्व पर चार्टर (सीआरईपी)
यह अपशिष्ट न्यूनीकरण, इन-प्लांट प्रक्रिया नियंत्रण और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाने सहित विभिन्न उपायों के माध्यम से प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण के लिए नियामक मानदंडों के अनुपालन से परे जाने के उद्देश्य से पारस्परिक रूप से सम्मत लक्ष्यों के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण, पानी की खपत, ऊर्जा की खपत को कम करने, ठोस अपशिष्ट और खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन के लिए इस्पात मंत्रालय और मुख्य/प्रमुख इस्पात संयंत्रों के सहयोग से पर्यावरण और वन मंत्रालय/केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की एक पहल है। सीआरईपी सिफारिशों के कार्यान्वयन के लिए एक नेशनल टास्क फोर्स (एनटीएफ) का गठन किया गया है। इस्पात मंत्रालय इस्पात संयंत्रों के सहयोग से सीआरईपी कार्रवाई बिंदुओं के अनुपालन की सुविधा प्रदान करता है। नेशनल टास्क फोर्स (एनटीएफ) का हाल ही में पुनर्गठन किया गया है
जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी)
राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती का सामना करने के लिए 2008 में जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीसीसी) शुरू की गई है। एनएपीसीसी ने 8 राष्ट्रीय मिशनों की रूपरेखा तैयार की है, उनमें से एक नेशनल मिशन फॉर एनहांस्ड एनर्जी एफिशिएंसी (एनएमईईई) है। परफॉर्म अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) एनएमईईई के तहत प्रमुख योजना है। पीएटी एक बाजार आधारित तंत्र है, ऊर्जा बचत के प्रमाणन के माध्यम से जिसका व्यापार किया जा सकता है। पीएटी अप्रैल 2012 से प्रभावी हो गया है।
पीएटी योजना ने अब तक भारत में 163 लौह और इस्पात इकाइयों को समाविष्ट किया है (जिन्हें प्राधिकृत उपभोक्ता कहा जाता है)। प्रति वर्ष 20,000 टन तेल के बराबर ऊर्जा खपत की सीमा को लौह एवं इस्पात क्षेत्र की किसी भी इकाई जिन्हें प्राधिकृत उपभोक्ता के रूप में चिन्हित किया जाना है के लिए कट-ऑफ सीमा के मानदंड के रूप में अंकित किया गया है। नामित उपभोक्ताओं के लिए लक्ष्य निर्धारित करने की पद्धति गेट टू गेट (जीटीजी) आधार पर विशिष्ट ऊर्जा खपत (एसईसी) में कमी पर आधारित है। कुल मिलाकर भारतीय इस्पात उद्योग ने पीएटी चक्र 1 और 2 में ऊर्जा खपत में कमी के लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया है।
एसएमई क्षेत्र में ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देना:
यूएनडीपी-जीईएफ- एमओएस प्रोजेक्ट: "इस्पात री-रोलिंग मिल्स में ऊर्जा दक्षता" (2004-2013):
परियोजना पूरी हो चुकी है और कार्यान्वित की जा चुकी है। इसने 34 इस्पात री-रोलिंग मिलों (मॉडल इकाइयों) में ऊर्जा की खपत को कम करने और जीएचजी उत्सर्जन को 25-50% तक कम करने के लिए कम कार्बन प्रौद्योगिकियों की सुविधा प्रदान की है। इसने कई अन्य इस्पात री-रोलिंग मिलों में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकिय पहलों की प्रतिकृति बनाने में मदद की है।
यूएनडीपी-एमओएस - एयूएसएआईडी परियोजना: भारत में लघु इस्पात उद्योग में ऊर्जा दक्ष उत्पादन को बढ़ाना" (जून 2013-जून 2016)
इसके अतिरिक्त इस्पात री-रोलिंग मिलों में प्रतिकृत ऊर्जा दक्षता को दोहराया और अन्य एसएमई क्षेत्र जैसे इंडक्शन फर्नेस में पहलों का विस्तार किया गया। यह परियोजना 321 लघु इस्पात मिलों (निजी क्षेत्र से 50 करोड़ के निवेश पर 5 इंडक्शन फर्नेस इकाइयों सहित) को कवर करती है, जबकि इस्पात मंत्रालय, औसएड और यूएनडीपी से 20 करोड़ रुपये का वित्त पोषण होता है। इन इकाइयों ने ऊर्जा दक्षता प्रौद्योगिकियों को अपनाया और विशिष्ट ऊर्जा की खपत को 20% से 30% तक कम किया। इन पहलों ने सालाना लगभग 400,000 टन कार्बन डाइऑक्साइड को कम किया। इसके बाद, उद्योग इन प्रौद्योगिकियों को अपने स्वयं के वित्त पोषण के साथ दोहरा रहा है।
ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए एनईडीओ मॉडल परियोजनाएं:
अर्थव्यवस्था व्यापार और उद्योग मंत्रालय के माध्यम से जापान सरकार भारत सरकार के आर्थिक कार्य विभाग के माध्यम से इस्पात सहित विभिन्न क्षेत्रों में अपनी हरित सहायता योजना (जीएपी) के तहत विदेशी विकास सहायता (ओडीए) के रूप में ऊर्जा कुशल, पर्यावरण अनुकूल परियोजनाओं की स्थापना के लिए धन प्रदान करती है, जिन्हें मॉडल परियोजनाओं के रूप में जाना जाता है। इन परियोजनाओं को एनईडीओ (नई ऊर्जा और औद्योगिक प्रौद्योगिकी विकास संगठन), जापान द्वारा संचालित और प्रबंधित किया जाता है। इस्पात मंत्रालय लौह और इस्पात क्षेत्र में शुरू की गई परियोजनाओं का समन्वय कर रहा है। अब तक निम्नलिखित तीन परियोजनाएं दो टाटा स्टील में और एक परियोजना आरआईएनएल में प्रांरभ की गई है।
इसके अतिरिक्त, एक और मॉडल परियोजना अर्थात आईएसपी बर्नपुर, सेल में ऊर्जा निगरानी और प्रबंधन प्रणाली कार्यान्वयन के अधीन है।
लौह और इस्पात स्लैग का उपयोग:
बीएफ आयरन स्लैग स्टील मेल्टिंग शॉप (एसएमएस) सहित, एकीकृत इस्पात संयंत्रों में उत्पादित प्रमुख कचरे में स्लैग होता है जो आईएसपी में उत्पादित प्रत्येक टन इस्पात में लगभग आधे टन से अधिक होता है। अधिकांश इस्पात संयंत्र उत्पादित लोहे के स्लैग का 100% उपयोग कर रहे हैं (ज्यादातर सीमेंट बनाने में और कुछ हिस्से का एग्रीगेट के रूप में, दोनों को बीआईएस या आईआरसी मानक विनिर्देशों में अनुमति है) जबकि अन्य 100% उपयोग तक पहुंचने के करीब हैं।
एसएमएस का उपयोग (विशेषकर एलडी) निम्न कारणों से सीमित है:
इस्पात उद्योग निर्माण और सड़क बनाने, मिट्टी की कंडीशनिंग, रेल गिट्टी (बैलास्ट) जैसे अन्य अनुप्रयोगों में इस्पात स्लैग का उपयोग करने के तरीके और साधन खोज रहा है। तदापि इसके प्रयोगों में समस्याएं और मुद्दे हैं। इस्पात स्लैग को प्रयोग में लाने से पहले पर्याप्त रूप से पुराने होने और बहुत महीन आकार के लिए पीसने की आवश्यकता होती है, जिसमें पर्याप्त लागत लगती है। निर्माण गतिविधियों और सड़क निर्माण में प्राकृतिक सामग्री के प्रतिस्थापन के रूप में इस्पात स्लैग के उपयोग के लिए दिशानिर्देशों का अभाव है। रेल में प्राकृतिक सामग्री का उपयोग आरडीएसओ मानकों द्वारा नियंत्रित होता है। हालांकि, वर्तमान में लौह आरडीएसओ मानक और इस्पात स्लैग के उपयोग की अनुमति नहीं देते हैं। इस्पात उद्योग इस मामले को आरडीएसओ के समक्ष उठा रहा है।
इस्पात मंत्रालय विभिन्न अंतिम उपयोगों में इस्पात स्लैग के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं को वित्तपोषित कर रहा है:
भारतीय इस्पात उद्योग के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी):
भारत सरकार ने वर्ष 2005 के स्तर से वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 33 से 35 प्रतिशत तक कम करने के लिए भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (आईएनडीसी) को प्रस्तुत किया है। तदनुसार, इस्पात मंत्रालय ने स्वच्छ और हरित प्रौद्योगिकियों को अपनाकर जीएचजी उत्सर्जन को कम करने के लिए लौह और इस्पात क्षेत्र के लिए एमओईएफ और सीसी को एनडीसी प्रस्तुत किया है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा तैयार द्विवार्षिक अद्यतन रिपोर्ट (बीयूआर-3) में जीएचजी उत्सर्जन को कम करने में भारत द्वारा प्राप्त की गई प्रगति की मुख्य उपलब्धियां निम्नानुसार हैं:
इस्पात उद्योग की उपलब्धियों की कुछ प्रमुख विशेषताएं नीचे दी गई हैं: